राष्ट्र भाषा हिंन्दी - National Language Hindi
प्रयेक भारत वासी के लिये यह बड़े हर्ष का विषय है कि आज हिंन्दी को राष्ट्र - भाषा के गौरवमय पद पर आसीन किया गया है । यह खेद का विषय है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 66 वर्ष के बाद भी हिंन्दी अपने वास्तविक स्थान पर आरुढ़ नहीं हो सकी । आज हम भले ही राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर चुके है लेकिन अभी तक मानसिक दास्ता से मुक्ति नहीं पा सके है । राष्ट्रभाषा हिंन्दी के द्वारा देश में भावात्मक एंव सांस्कृतिक कला लाई जा रही सकती है। भावात्मक और सांस्कृतिक एकता के बिना राष्ट्र की उन्नति करना एैसा है जैसे हाथों द्वारा तैर कर समुद्र पार करना।
अंग्रेजों के चले जाने पर भी हमने बड़ी निर्लज्जता से अभी तक अंग्रेजी को अपनी छाती से चिपकाए रखा है। इससे बढ़कर कृतध्नता और क्या हो सकती है कि हम आज भी अंग्रेजी भाषा को अपनी मातृभाषा से अधिक महत्व दे रहे हैं। हिंन्दी भाषा को अपनाए बिना देश की उन्नति होना मानो आकाश-कुसुम के समान है। कविवर भारतेन्दु हरिशचंद्र ने हिंन्दी भाषा प्रेम के विषय में बहुत सुंदर लिखा है।
निज भाषा उन्नति अहै,
सब उन्नति को भूल निज भाषा का ज्ञान के,
मिटत न हिथ को सूल ।
लाख अनेक उपाय यों, भले करो किन कौय।
निज भाषा उन्नति बिना न सब गुन होते प्रवीन।
पे निज भाषा ज्ञान बिन , रहत हीन के हीन ।
स्वतंत्रता - प्राप्ति के इतने वर्षों के पश्चात भी हमारे बड़े बड़े नेता - अभीनेता भी अंग्रेजी को ही विचार अभिव्यक्त का साधन मानते हैं । यह मनोवृति दासता का परिचय देती है आप किसी इंग्लैड वासी से पुछिये , कि आपकी देश की भाषा कौन से है ? वह तो झट से उत्तर देगा - अंग्रेजी। इसी प्रकार फ्रांस में रहने वाला अपनी भाषा फ्रैंच व जापान में रहने वाला अपनी भाषा जापानी ही बताएगा। परन्तु विश्व में भारत ही एैसा देश अभागा देश है जहां के लोग अपनी भाषा "हिंन्दी" बताने में शर्म महसुस करते है। हिंन्दी भाषा के प्रति उनकी उदासीनता , अल्पज्ञता , अज्ञानता , और देश की भावात्मक एकता को खतरे में ड़ाल देती है । महावीर प्रसाद द्विवेदी भाषा के महत्व के विषय में लिखते हैं। बात यह है कि अपनी भाषा साहित्य की जाति और स्वदेश की उन्नति का साधक है । विदेशी भाषा का चूड़ांत ज्ञान प्राप्त कर लेने और उसमें महत्वपूर्ण ग्रंथ - रचना करने पर भी विषय सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है और अपने देश को विशेष लाभ नहीं पहुंच सकता ।
अपनी मां को निःसहाय और निर्धन दशा में छोड़कर जो मनुष्य दुसरे की मां की सेवा में रत है उस अधम की कृतध्नता का क्या प्रायश्चित होना चाहिए । इसका निर्णय कोई मनु-याज्ञवल्क व आप-स्तम्भ ही कर सकता है। यदि हम अपनी भारतीय संस्कृति से परिचित होना चाहते हैं तो एकमात्र हिंन्दी भाषा से ही हो सकते हैं हिंन्दी जन साधारण की भाषा है । भारत की सात करोड़ जनता की आशाएं , अकांक्षाएं , अभिलाषाए , निराशाएं और दुःख-सुख का यर्थाथ एंव सुंन्दर चित्रण हमें हिंन्दी साहित्य से ही मिलता है।
राष्ट्र भाषा के गर्भ में हमारी मान-मर्यादा , उच्च आदर्श सुरक्षित हैं। हिंन्दी सदा से ही भारत की एकता का प्रतीक रही है हम हिंन्दी प्रेमियों को जन-मानस के ह्रदय में अपनी राष्ट्र-भाषा के प्रति प्रेम उत्पन्न करने के लिये इसके प्रचार व प्रसार में अवश्य भाग लेना चाहिए।
अन्त में मैं हिंन्दी भाषा के उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ -
सबकी भाषाएं समृद्ध हों, है मेरी भाषा,
पूरी हो मेरे भारत की उससे अभिलाषा।
जय हिन्द । जय भारत ।
प्रयेक भारत वासी के लिये यह बड़े हर्ष का विषय है कि आज हिंन्दी को राष्ट्र - भाषा के गौरवमय पद पर आसीन किया गया है । यह खेद का विषय है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 66 वर्ष के बाद भी हिंन्दी अपने वास्तविक स्थान पर आरुढ़ नहीं हो सकी । आज हम भले ही राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर चुके है लेकिन अभी तक मानसिक दास्ता से मुक्ति नहीं पा सके है । राष्ट्रभाषा हिंन्दी के द्वारा देश में भावात्मक एंव सांस्कृतिक कला लाई जा रही सकती है। भावात्मक और सांस्कृतिक एकता के बिना राष्ट्र की उन्नति करना एैसा है जैसे हाथों द्वारा तैर कर समुद्र पार करना।
अंग्रेजों के चले जाने पर भी हमने बड़ी निर्लज्जता से अभी तक अंग्रेजी को अपनी छाती से चिपकाए रखा है। इससे बढ़कर कृतध्नता और क्या हो सकती है कि हम आज भी अंग्रेजी भाषा को अपनी मातृभाषा से अधिक महत्व दे रहे हैं। हिंन्दी भाषा को अपनाए बिना देश की उन्नति होना मानो आकाश-कुसुम के समान है। कविवर भारतेन्दु हरिशचंद्र ने हिंन्दी भाषा प्रेम के विषय में बहुत सुंदर लिखा है।
निज भाषा उन्नति अहै,
सब उन्नति को भूल निज भाषा का ज्ञान के,
मिटत न हिथ को सूल ।
लाख अनेक उपाय यों, भले करो किन कौय।
निज भाषा उन्नति बिना न सब गुन होते प्रवीन।
पे निज भाषा ज्ञान बिन , रहत हीन के हीन ।
स्वतंत्रता - प्राप्ति के इतने वर्षों के पश्चात भी हमारे बड़े बड़े नेता - अभीनेता भी अंग्रेजी को ही विचार अभिव्यक्त का साधन मानते हैं । यह मनोवृति दासता का परिचय देती है आप किसी इंग्लैड वासी से पुछिये , कि आपकी देश की भाषा कौन से है ? वह तो झट से उत्तर देगा - अंग्रेजी। इसी प्रकार फ्रांस में रहने वाला अपनी भाषा फ्रैंच व जापान में रहने वाला अपनी भाषा जापानी ही बताएगा। परन्तु विश्व में भारत ही एैसा देश अभागा देश है जहां के लोग अपनी भाषा "हिंन्दी" बताने में शर्म महसुस करते है। हिंन्दी भाषा के प्रति उनकी उदासीनता , अल्पज्ञता , अज्ञानता , और देश की भावात्मक एकता को खतरे में ड़ाल देती है । महावीर प्रसाद द्विवेदी भाषा के महत्व के विषय में लिखते हैं। बात यह है कि अपनी भाषा साहित्य की जाति और स्वदेश की उन्नति का साधक है । विदेशी भाषा का चूड़ांत ज्ञान प्राप्त कर लेने और उसमें महत्वपूर्ण ग्रंथ - रचना करने पर भी विषय सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है और अपने देश को विशेष लाभ नहीं पहुंच सकता ।
अपनी मां को निःसहाय और निर्धन दशा में छोड़कर जो मनुष्य दुसरे की मां की सेवा में रत है उस अधम की कृतध्नता का क्या प्रायश्चित होना चाहिए । इसका निर्णय कोई मनु-याज्ञवल्क व आप-स्तम्भ ही कर सकता है। यदि हम अपनी भारतीय संस्कृति से परिचित होना चाहते हैं तो एकमात्र हिंन्दी भाषा से ही हो सकते हैं हिंन्दी जन साधारण की भाषा है । भारत की सात करोड़ जनता की आशाएं , अकांक्षाएं , अभिलाषाए , निराशाएं और दुःख-सुख का यर्थाथ एंव सुंन्दर चित्रण हमें हिंन्दी साहित्य से ही मिलता है।
राष्ट्र भाषा के गर्भ में हमारी मान-मर्यादा , उच्च आदर्श सुरक्षित हैं। हिंन्दी सदा से ही भारत की एकता का प्रतीक रही है हम हिंन्दी प्रेमियों को जन-मानस के ह्रदय में अपनी राष्ट्र-भाषा के प्रति प्रेम उत्पन्न करने के लिये इसके प्रचार व प्रसार में अवश्य भाग लेना चाहिए।
अन्त में मैं हिंन्दी भाषा के उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ -
सबकी भाषाएं समृद्ध हों, है मेरी भाषा,
पूरी हो मेरे भारत की उससे अभिलाषा।
जय हिन्द । जय भारत ।
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